Baba Prachand Nath

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Amit Shukla GKP

शनिवार, 5 सितंबर 2015

सनातन धर्म

सनातन धर्म अथवा हिन्दू धर्म की संस्कृति  संस्कारों पर ही आधारित है । हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिए संस्कारों का अविष्कार  किया । धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक दृष्टि से भी इन संस्कारों का हमारे जीवन में विशेष महत्व है । भारतीय संस्कृति की महानता में इन संस्कारों का बहुत योगदान है !!

प्राचीन  हमारा प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था  समय  संख्या लगभग 40 थी जैसे जैसे समय बदलता गया व्यस्तता बदलती गई तो कुछ संस्कार स्वतः विलुप्त हो गये । इस प्रकार समयानुसार संशोधित  होकर   संख्या निर्धारित होती गई । 
गौतम स्मृति में 40 प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है । महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया । व्यास स्मिृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है । हमरो धर्म शास्त्रों में  भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है । इनमे पहला गर्भधान संस्कार और मृत्यु के उपरांत अंत्येष्टि अंतिम संस्कार है । गर्भाधान के बाद पुंसवन  सीमन्तोन्नयन  जातकर्म  नामकरण ये सभी संस्कार नवजात का दैवी जगत से संबंध स्थापना के लिए किया  जाता है !!

नामकरण के बाद चूड़ाकर्म और यज्ञोपवीत संस्कार होता है  उसके बाद विवाह संस्कार होता है यह गृहस्थ जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है । हिन्दू धर्म  में दोनों के लिए यह सबसे बड़ा संस्कार है जो जन्म-जन्मान्तर का होता है विभिन्न धर्म ग्रंथो में संस्कारो के क्रम में थोड़ा बहुत अंतर है । लेकिन प्राचीन संस्कारो के क्रम में गर्भधान  पुंसवन  सीमन्तोन्नयन  जातकर्म  नामकरण  निष्क्रमण  अन्नप्राशन  चूड़ाकर्म  विद्द्यारंभ  कर्णवेद  यज्ञोपवीत  वेदारम्भ  केशान्त  समावर्तन  विवाह तथा अन्त्येष्टि ही मान्य है । गर्भाधान से विद्द्यारंभ तक के संस्कारों को गर्भ संस्कार भी कहते हैं । इनमे पहले तीन ( गर्भाधान  पुंसवन  सीमन्तोन्नयन )   अन्तगर्भ संस्कार तथा इसके बाद के छह संस्कारों को बहिगर्भ संस्कार कहते हैं । गर्भ संस्कार को दोष मार्जन संस्कार अथवा शोधक संस्कार भी कहा जाता है । दोष मार्जन संस्कार का तात्पर्य यह है की शिशु के जन्मों  के पूर्व आये धर्म एवं कर्म से संबंधित दोषों तथा गर्भ के आई विकृतियों के मार्जन के लिए संस्कार किये जाते हैं ।।  

बाद वाले छह संस्कारों को गुणाधान संस्कार कहा  । दोष मार्जन के बाद मनुष्य के सुप्त गुणों की अभीवृद्धि के लिए  ये संस्कार किये जाते हैं । हमारे महर्षियों ने हमें सुसंस्कृत तथा सामाजिक बनाने के लिए अपने अथक प्रयाशों और शोधों के बल पर ये संस्कार स्थापित किया है !!
 
इन्ही संस्कारों के कारण भारतीय संस्कृति अद्वितीय है। हलांकि हाल के कुछ वर्षों में आपाधापी की जिंदगी और अतिव्यस्तता के कारण सनातन धर्मावलम्बी अब इन मूल्यों को  हैं  इसके परिणाम भी चारित्रिक गिरावट , संवेदनहीनता , असमाजिकता और गुरु जनों की अवज्ञा या अनुशासनहीनता के रूप में हमारे सामने आने लगे हैं । 
सामय के अनुसार बदलाव जरुरी है लेकिन हमारे महर्षियों द्वारा स्थापित मूलभूत सिद्धांतों को नकारना कभी श्रेयस्कर नहीं होगा !!
 
 
 
 
 
!! जय !! श्री !! राम !! 

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